आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
0 |
भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- परउँ कूप तुअ बचन पर, सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़, कस न करब हित लागि॥२१॥
कहसि मोर दुखु देखि बड़, कस न करब हित लागि॥२१॥
[कैकेयीने कहा--] मैं तेरे कहनेसे कुएँमें गिर सकती हूँ, पुत्र
और पतिको भी छोड़ सकती हूँ। जब तू मेरा बड़ा भारी दुःख देखकर कुछ कहती है, तो
भला मैं अपने हितके लिये उसे क्यों न करूँगी?॥ २१॥
कुबरीं करि कबुली कैकेई।
कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैसें।
चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।
कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैसें।
चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।
कुबरीने कैकेयीको [सब तरहसे] कबूल करवाकर (अर्थात् बलिपशु
बनाकर) कपटरूप छुरीको अपने [कठोर] हृदयरूपी पत्थरपर टेया (उसकी धारको तेज
किया)। रानी कैकेयी अपने निकटके (शीघ्र आनेवाले) दुःखको कैसे नहीं देखती,
जैसे बलिका पशु हरी-हरी घास चरता है [पर यह नहीं जानता कि मौत सिरपर नाच रही
है]॥१॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी।
देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं।
स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं।
स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
मन्थराकी बातें सुनने में तो कोमल हैं, पर परिणाममें कठोर
(भयानक) हैं। मानो वह शहदमें घोलकर जहर पिला रही हो। दासी कहती है-हे
स्वामिनि ! तुमने मुझको एक कथा कही थी, उसकी याद है कि नहीं?॥२॥
दुइ बरदान भूप सन थाती।
मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनबासू।
देहु लेहु सब सवति हुलासू॥
मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनबासू।
देहु लेहु सब सवति हुलासू॥
तुम्हारे दो वरदान राजाके पास धरोहर हैं। आज उन्हें राजासे
माँगकर अपनी छाती ठंढी करो। पुत्रको राज्य और रामको वनवास दो और सौतका सारा
आनन्द तुम ले लो॥३॥
भूपति राम सपथ जब करई।
तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें।
बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।
तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें।
बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।
जब राजा राम की सौगंध खा लें, तब वर माँगना, जिससे वचन न टलने
पावे। आजकी रात बीत गयी, तो काम बिगड़ जायगा। मेरी बात को हृदयसे प्रिय [या
प्राणोंसे भी प्यारी] समझना॥४॥
|
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
- अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
- अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
- अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
- अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी पर स्वामिभक्ति दिखाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का निश्चय दृढृ करवाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
अनुक्रम
लोगों की राय
No reviews for this book