आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
महाराज दशरथ के मन में राज्याभिषेक का विचार
मंगलमूल रामु सुत जासू।
जो कछु कहिअ थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा।
बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा॥
जो कछु कहिअ थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा।
बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा॥
मङ्गलों के मूल श्रीरामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिये जो
कुछ कहा जाय सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और
उसमें अपना मुँह देखकर मुकुटको सीधा किया। ३।
श्रवन समीप भए सित केसा।
मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू।
जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू।
जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
[देखा कि] कानों के पास बाल सफेद हो गये हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा
उपदेश कर रहा है कि हे राजन्! श्रीरामचन्द्रजी को युवराज-पद देकर अपने जीवन
और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते॥ ४॥
दो०- यह बिचारु उर आनि नृप, सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन, गुरहि सुनायउ जाइ॥२॥
प्रेम पुलकि तन मुदित मन, गुरहि सुनायउ जाइ॥२॥
हृदय में यह विचार लाकर (युवराज-पद देनेका निश्चय कर) राजा
दशरथजी ने शुभ दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनन्दमग्न मन
से उसे गुरु वसिष्ठजी को जा सुनाया॥२॥
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक।
भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी।
जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी।
जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
राजाने कहा-हे मुनिराज! [कृपया यह निवेदन] सुनिये।
श्रीरामचन्द्र अब सब प्रकारसे सब योग्य हो गये हैं। सेवक, मन्त्री, सब
नगरनिवासी और जो हमारे शत्रु, मित्र या उदासीन हैं--॥१॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही।
प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं।
करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं॥
प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं।
करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं॥
सभी को श्रीरामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैं जैसे वे मुझको हैं।
[उनके रूपमें] आपका आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे
स्वामी! सारे ब्राह्मण, परिवार सहित आपके ही समान उन पर स्नेह करते हैं॥२॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं।
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
ते जनु सकल बिभव बस करहीं।
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो
समस्त ऐश्वर्य को अपने वशमें कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी
ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण-रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥३॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें।
पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें।
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू।
कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें।
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू।
कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
अब मेरे मनमें एक ही अभिलाषा है। हे नाथ! वह भी आपही के अनुग्रह
से पूरी होगी। राजा का सहज प्रेम देखकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा-नरेश! आज्ञा
दीजिये (कहिये, क्या अभिलाषा है ?)॥४॥
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